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“मैं बिन ब्याही माँ हूँ…”

स्याही का साहस...
स्याही का साहस...
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माथे पर सिन्दूर नहीं,
पर कोख में पलती ममता है मेरी..
कलाई है मेरी सूनी-सूनी,
न पहनूं मैं चूड़िय़ाँ नीली-हरी..

मैं एक बिन ब्याही माँ हूँ,
समाज की संस्कृतियों की छाप नहीं..
पर मैं तो एक माँ हूँ,
और माँ होना कोई पाप नहीं…

न मेहंदी, न हल्दी, न रस्में निभाईं,
न लिए मैंने सात फेरे..
एक प्यार ही नींव हैं तेरे जीवन की मेरे लाल,
साँसें डाली हैं बदन में जिसने तेरे…

रही होगी मुझमे कमी कोई,
जो इस कठिन राह पर अकेली चल रही हूँ..
पर मेरी जान तो बसती है तुझमे,
तेरी उम्मीदों से मैं भी पल रही हूँ..

कलंक कहता है सारा समाज मुझे,
थू-थू करता है तेरी माँ पर..
पर मुझे किसी निंदा का दुःख नहीं,
जब तक तू जिंदा है मेरे अन्दर..

दिन, हफ्ते करती हूँ इंतज़ार मैं तेरा,
कब देखूंगी सूरत तेरी मेरे कन्हैया..
प्यार से खिलाऊँगी गोद में तुझे अपनी,
जब तू बुलाएगा मुझे अपनी मैया..

माना इस समाज के प्रतिकूल है,
तुझे इस दुनिया में लाने का फैसला मेरा,
पर कैसे उखाड़ फेंकती अपने शरीर से,
फूल सा कोमल तन तेरा..

जब आएगा तू इस दुनिया में बहार,
तुझे दुनिया की गन्दगी से बचाऊँगी,
नारी जाती का सम्मान हमेशा करना,
प्यारा यह पाठ तुझे सिखाऊँगी..

मुश्किल है मेरा यह संघर्ष,
मेरा निर्णय किसी को रास नहीं,
पर मैं तो एक माँ हूँ,
और माँ होना कोई पाप नहीं..

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